عن أَبِي حَازِمِ بْن دِينَارٍ:
أَنَّ رِجَالًا أَتَوْا سَهْلَ بْنَ سَعْدٍ السَّاعِدِيَّ، وَقَدِ امْتَرَوْا فِي الْمِنْبَرِ مِمَّ عُودُهُ، فَسَأَلُوهُ عَنْ ذَلِكَ، فَقَالَ: وَاللهِ إِنِّي لَأَعْرِفُ مِمَّا هُوَ، وَلَقَدْ رَأَيْتُهُ أَوَّلَ يَوْمٍ وُضِعَ، وَأَوَّلَ يَوْمٍ جَلَسَ عَلَيْهِ رَسُولُ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، أَرْسَلَ رَسُولُ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ إِلَى فُلَانَةَ -امْرَأَةٍ من الأنصار قَدْ سَمَّاهَا سَهْلٌ-: «مُرِي غُلَامَكِ النَّجَّارَ أَنْ يَعْمَلَ لِي أَعْوَادًا أَجْلِسُ عَلَيْهِنَّ إِذَا كَلَّمْتُ النَّاسَ»، فَأَمَرَتْهُ فَعَمِلَهَا مِنْ طَرْفَاءِ الْغَابَةِ، ثُمَّ جَاءَ بِهَا، فَأَرْسَلَتْ إِلَى رَسُولِ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، فَأَمَرَ بِهَا فَوُضِعَتْ هَاهُنَا، ثُمَّ رَأَيْتُ رَسُولَ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ صَلَّى عَلَيْهَا وَكَبَّرَ وَهُوَ عَلَيْهَا، ثُمَّ رَكَعَ وَهُوَ عَلَيْهَا، ثُمَّ نَزَلَ الْقَهْقَرَى، فَسَجَدَ فِي أَصْلِ الْمِنْبَرِ ثُمَّ عَادَ، فَلَمَّا فَرَغَ أَقْبَلَ عَلَى النَّاسِ فَقَالَ: «أَيُّهَا النَّاسُ، إِنَّمَا صَنَعْتُ هَذَا لِتَأْتَمُّوا وَلِتَعَلَّمُوا صَلَاتِي».

[صحيح] - [متفق عليه]
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अबू हाज़िम बिन दीनार से रिवायत है, वह कहते हैं :
कुछ लोग सह्ल बिन साद साइदी के पास आए। उनके बीच इस बात को लेकर बहस हो गई थी कि मिंबर की लकड़ी किस पेड़ की थी? उन लोगों ने सह्ल से इसके बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा : अल्लाह की क़सम, मुझे अच्छी तरह मालूम है कि उसकी लकड़ी किस पेड़ की थी। मैंने उस दिन भी उसे देखा जब उसे पहली बार रखा गया और उस दिन भी देखा जब उसपर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पहली बार बैठे। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अमुक औरत -एक अंसारी औरत जिसका नाम भी सह्ल ने लिया था- को कहला भेजा : "अपने बढ़ई दास से कहो कि मेरे लिए लकड़ी का एक मिंबर बना दे, जिसपर मैं लोगों से बात करते समय बैठ सकूँ।" चुनांचे उन्होंने अपने दास को इसका आदेश दिया और उसने जंगल के झाऊ के पेड़ से मिंबर तैयार करके उनको दे दिया। चुनांचे उन्होंने उसे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास भेज दिया और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आदेश से उसे यहाँ रख दिया गया। फिर मैंने देखा कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसपर खड़े होकर नमाज़ पढ़ी। आपने उसी पर खड़े होकर तकबीर कही और उसी पर खड़े होकर रुकू किया, फिर पीछे हटते हुए मिंबर से उतर गए और मिंबर के पास ही सजदा किया और फिर मिंबर पर खड़े हो गए। जब नमाज़ पूरी हो गई, तो लोगों को संबोधित करते हुए कहा : "लोगो! मैंने ऐसा इसलिए किया, ताकि तुम मेरा अनुसरण कर सको और मेरी नमाज़ सीख सको।"

सह़ीह़ - इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

व्याख्या

एक व्यक्ति एक सहाबी के पास यह पूछने के लिए आया कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जो मिंबर बनवाया था, वह किस लकड़ी की थी? दरअसल हुआ यह था कि उनके बीच इस संबंध में बहस हो गई थी। चुनांचे उस सहाबी ने बताया कि आपने एक अंसारी औरत को, जिसके पास एक बढ़ई दास था, कहला भेजा कि अपने दास से कहो कि मेरे लिए एक मिंबर बना दे, जिसपर बैठकर मैं लोगों से बात कर सकूँ। उस औरत ने आपके आदेश का पालन करते हुए अपने दास को आपके लिए झाऊ पेड़ की लकड़ी का एक मिंबर बनाने का आदेश दिया। जब मिंबर बनकर तैयार हो गया, तो उस औरत ने उसे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास भेज दिया। फिर आपके आदेश से उसे मस्जिद के अंदर उसके स्थान पर रख दिया गया। फिर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसपर खड़े होकर नमाज़ पढ़ी। तकबीर उसी पर खड़े होकर कही, फिर रुकू उसी पर खड़े होकर किया, फिर मिंबर से उतरकर पीछे की ओर चेहरा घुमाए बिना गए, मिंबर के पास सजदा किया और फिर मिंबर पर आ गए। जब नमाज़ पूरी हो गई, तो लोगों को संबोधित करते हुए कहा : लोगो! मैंने ऐसा इसलिए किया, ताकि तुम मेरा अनुसरण कर सको और मेरी नमाज़ सीख सको।

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हदीस का संदेश

  1. मिंबर रखना और उसपर चढ़कर खुतबा देना मुसतहब है। इसका उद्देश्य होता है, अपनी बात पहुँचाना और सुनाना।
  2. सिखाने के लिए मिंबर पर नमाज़ पढ़ना जायज़ है और किसी ज़रूरत के कारण इमाम का मुक़तदी से ऊँची जगह पर खड़ा होना भी जायज़ है।
  3. मुसलमानों की ज़रूरत पूरी करने के लिए हुनरमंद लोगों से सहायता लेना जायज़ है।
  4. आवश्यक्तानुसार नमाज़ में थोड़ी-बहुत हरकत (गतिविधि) करना जायज़ है।
  5. नमाज़ की हालत में मुक़तदी के लिए नमाज़ सीखने के उद्देश्य से अपने इमाम को देखना जायज़ है। और यह विनयशीलता के विरुद्ध नहीं है।
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