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عن سَعِيدِ بْنِ الْمُسَيَّبِ، عَنْ أَبِيهِ قَالَ:
لَمَّا حَضَرَتْ أَبَا طَالِبٍ الْوَفَاةُ، جَاءَهُ رَسُولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم فَوَجَدَ عِنْدَهُ أَبَا جَهْلٍ وَعَبْدَ اللهِ بْنَ أَبِي أُمَيَّةَ بْنِ الْمُغِيرَةِ، فَقَالَ: «أَيْ عَمِّ، قُلْ: لَا إِلَهَ إِلَّا اللهُ، كَلِمَةً أُحَاجُّ لَكَ بِهَا عِنْدَ اللهِ»، فَقَالَ أَبُو جَهْلٍ وَعَبْدُ اللهِ بْنُ أَبِي أُمَيَّةَ: أَتَرْغَبُ عَنْ مِلَّةِ عَبْدِ الْمُطَّلِبِ، فَلَمْ يَزَلْ رَسُولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم يَعْرِضُهَا عَلَيْهِ، وَيُعِيدَانِهِ بِتِلْكَ الْمَقَالَةِ، حَتَّى قَالَ أَبُو طَالِبٍ آخِرَ مَا كَلَّمَهُمْ: عَلَى مِلَّةِ عَبْدِ الْمُطَّلِبِ، وَأَبَى أَنْ يَقُولَ: لَا إِلَهَ إِلَّا اللهُ، قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم: «وَاللهِ لَأَسْتَغْفِرَنَّ لَكَ مَا لَمْ أُنْهَ عَنْكَ»، فَأَنْزَلَ اللهُ: {مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَالَّذِينَ آمَنُوا أَنْ يَسْتَغْفِرُوا لِلْمُشْرِكِينَ} [التوبة: 113]، وَأَنْزَلَ اللهُ فِي أَبِي طَالِبٍ، فَقَالَ لِرَسُولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم: {إِنَّكَ لا تَهْدِي مَنْ أَحْبَبْتَ وَلَكِنَّ اللهَ يَهْدِي مَنْ يَشَاءُ} [القصص: 56].

[صحيح] - [متفق عليه] - [صحيح البخاري: 4772]
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सईद बिन मुसय्यिब अपने पिता से रिवायत करते हैं, वह कहते हैं :
जब अबू तालिब की मृत्यु का समय निकट आया, तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उनके पास आए। उस समय आपने उनके पास अब्दुल्लाह बिन अबू उमय्या बिन मुग़ीरा और अबू जह्ल को पाया। आपने कहा : "ऐ चचा जान, आप 'ला इलाहा इल्लल्लाह' कह दें, मैं इस कलिमा को अल्लाह के पास प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत करूँगा।" यह सुन अबू जह्ल और अब्दुल्लाह बिन अबू उमय्या ने कहा : क्या तुम अब्दुल मुत्तलिब का धर्म छोड़ दोगे? अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बार-बार निवेदन करते रहे और दोनों रोकने के प्रयास में लगे रहे। अंततः अबू तालिब ने यही कहा कि वह अब्दुल मुत्तलिब के धर्म पर कायम हैं। इस तरह 'ला इलाहा इल्लल्लाह' कहने से इनकार कर दिया। वर्णनकर्ता कहते हैं : परन्तु, अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : "जब तक मुझे रोका न जाए, मैं आपके लिए क्षमा माँगता रहूँगा।" चुनांचे अल्लाह ने यह आयत उतारी : {مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَالَّذِينَ آمَنُوا أَنْ يَسْتَغْفِرُوا لِلْمُشْرِكِينَ وَلَوْ كَانُوا أُولِي قربى...} (नबी और ईमान लाने वालों के लिए उचित नहीं कि वे बहुदेववादियों के लिए क्षमा की प्रपर्थना करें, यद्यपि वे नातेदार ही क्यों न होंं) [अत-तौबा : 113] तथा अबू तालिब के बारे में यह आयत उतारी : {إِنَّكَ لا تَهْدِي مَنْ أَحْبَبْتَ وَلَكِنَّ اللَّهَ يَهْدِي مَنْ يَشَاءُ وَهُوَ أَعْلَمُ بِالْمُهْتَدِينَ} (तुम जिसे चाहो सुपथ पर नहीं ला सकते, किंतु अल्लाह जिसे चाहता है राह दिखाता है, और वह राह पाने वालों को भली-भाँति जानता है।) [अल-क़सस : 56]

सह़ीह़ - इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

व्याख्या

अबू तालिब की मृत्यु का समय निकट आया, तो अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उनके पास आए और उनसे फ़रमाया : चचा जान! आप ला इलाहा इल्लल्लाह कह दें। इस एक वाक्य के आधार पर मैं अल्लाह के यहाँ आपके लिए गवाही दूँगा। यह सुन अबू जह्न और अब्दुल्लाह बिन अबू उमय्या ने कहा : अबू तालिब! आप अपने पिता अब्दुल मुत्तलिब का धर्म छोड़ देंगे? वह धर्म दरअसल बुतपरस्ती वाला धर्म था। दोनों उनसे बात करते रहे, यहाँ तक कि उन्होंने उनसे जो अंतिम बात कही, वह इस प्रकार थी : मैं अब्दुल मुत्तलिब के धर्म पर रहते हुए दुनिया से जा रहा हूँ। यानी शिर्क और बुतपरस्ती के धर्म पर। यह सुन अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : मैं आपके लिए उस समय तक क्षमा याचना करता रहूँगा, जब तक मेरा रब मुझे मना न कर दे। चुनांचे इसी परिदृश्य में क़ुरआन की यह आयत उतरी : "किसी नबी के लिए तथा उनके लिए जो ईमान लाए हों, योग्य नहीं है कि मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) के लिए क्षमा की प्रार्थना करें। यद्यपि वे समीपवर्ती हों, जब ये स्पष्ट हो गया कि वास्तव में वह जहन्नमी हैं।" [अत-तौबा : 113] अबू तालिब के बारे में यह आयत उतरी : "(हे नबी!) आप जिसे चाहें उसे सुपथ नहीं दर्शा सकते, परन्तु अल्लाह जिसे चाहे सुपथ दर्शाता है, और वह भली-भाँति जानता है सुपथ प्राप्त करने वालों को।" [अल-क़सस : 56] आप जिसे सत्य के मार्ग पर चलाना चाहें, उसे सत्य के मार्ग पर चला नहीं सकते। आपका काम केवल पहुँचा देना है। अल्लाह जिसे चाहता है, सत्य के मार्ग पर चलाता है।

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हदीस का संदेश

  1. बहुदेववादियों के लिए अल्लाह से क्षमा की प्रार्थन करना जायज़ नहीं है, चाहे वह कितने ही क़रीबी रिश्तेदार क्यों न हों और उनका अमल एवं उपकार कितना ही बड़ा क्यों न हो।
  2. पूर्वजों एवं बड़े लोगों का कोरा अनुसरण अज्ञानता काल का काम है।
  3. इस बात का दावा करने वालों का खंडन कि अबू तालिब मुसलमान हो गए थे।
  4. कर्मों का दारोमदार अंत पर है।
  5. लाभ प्राप्त करने या नुक़सान से बचने के लिए अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से लौ लगाना ग़लत है।
  6. जिसने ज्ञान, यक़ीन और विश्वास के साथ ला इलाहा इल्लल्लाह कह दिया, वह मुसलमान हो गया।
  7. बुरे साथियों का नुक़सान।
  8. ला इलाहा इल्लल्लाह का अर्थ है, बुतों, औलिया और अल्लाह के सदाचारी बंदों की इबादत से दामन बचाना और केवल एक अल्लाह की इबादत करना। बहुदेववादी भी कलिमा-ए-तौहीद के इस अर्थ को समझते थे।
  9. हहुदेववादी रोगी को देखने के लिए जाना जायज़ है, जब उसके मुसलमान हो जाने की आशा हो।
  10. सुपथ पर चलने का सुयोग देना अल्लाह का काम है। रसूल का काम केवल राह बता देना और संदेश पहुँचा देना है।