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عَنْ أَبِي مُحَمَّدٍ عَبْدِ اللَّهِ بْنِ عَمْرِو بْنِ العَاصِ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمَا، قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ:
«لَا يُؤْمِنُ أَحَدُكُمْ حَتَّى يَكُونَ هَوَاهُ تَبَعًا لِمَا جِئْتُ بِهِ».

[قال النووي: حديث صحيح] - [رويناه في كتاب الحجة بإسناد صحيح] - [الأربعون النووية: 41]
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अबू मुहम्मद अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अनहुमा- का वर्णन है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"तुममें से कोई उस समय तक मोमिन नहीं हो सकता, जब तक उसकी इच्छाएँ मेरी लाई हुई शरीयत की अधीन न हो जाएँ।"

[قال النووي: حديث صحيح] - [رويناه في كتاب الحجة بإسناد صحيح] - [الأربعون النووية - 41]

व्याख्या

अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने बताया है कि कोई व्यक्ति उस समय तक पूर्ण मोमिन नहीं हो सकता, जब तक उसका प्रेम अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के लाए हुए आदेशों एवं निषेधों आदि के अधीन न हो जाए, और वह ऐसी चीज़ों से प्रेम करने लगे, जिनका आपने आदेश दिया है और ऐसी चीज़ों से नफ़रत करने लगे, जिनसे आपने मना किया है।

हदीस का संदेश

  1. यह हदीस शरीयत के अनुपालन के संबंध में एक सिद्धांत प्रस्तुत करती है।
  2. अक़्ल या आदत को अपने ऊपर हावी होने देने और उन्हें अल्लाह की लाई हुई शरीयत से आगे रखने से बचना चाहिए। इस हदीस के अनुसार ऐसा करने वाले के अंदर ईमान ही नहीं होता।
  3. शरीयत को हर चीज़ में और हर जगह निर्णायक मानना ज़रूरी है। क्योंकि आपके शब्द हैं : "जब तक उसकी इच्छाएँ मेरी लाई हुई शरीयत की अधीन न हो जाएँ।"
  4. ईमान नेकी के काम से बढ़ता और गुनाह के काम से घटता है।
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