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عَن أَبي هُرَيْرَةَ رضي الله عنه قَالَ: سَمِعْتُ رَسُولَ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَقُولُ:
«الْحَلِفُ مَنْفَقَةٌ لِلسِّلْعَةِ، مَمْحَقَةٌ لِلرِّبْحِ».

[صحيح] - [متفق عليه] - [صحيح مسلم: 1606]
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अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- का वर्णन है, वह कहते हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को कहते हुए सुना है :
"क़सम सामान को मार्केट में चलाने का माध्यम तो है, लेकिन कमाई की बरकत ख़त्म कर देती है।"

[सह़ीह़] - [इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।] - [صحيح مسلم - 1606]

व्याख्या

अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने ख़रीदते बेचते समय क़सम खाने और क़सम का बहुत ज़्यादा प्रयोग करने से मना फ़रमाया है। क़सम चाहे सच्ची ही क्यों न हो। आपने बताया कि इससे सामान तो बिक जाता है, लेकिन क्रय-विक्रय एवं कमाई की बरकत कम और ख़त्म हो जाती है। अल्लाह उसके नष्ट हो जाने की राहें खोल देता है, चोरी द्वारा, या जलने, या डूबने, या हड़पने, या लूटपाट द्वारा, या अन्य दूसरी घटनाओं द्वारा जिनसे उसकी संपत्ति नष्ट हो जाती है।

हदीस का संदेश

  1. अल्लाह की क़सम खाना बहुत बड़ी बात है। बिना ज़रूरत इसका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।
  2. हराम की कमाई चाहे जितनी ज़्यादा नज़र आए, उसमें बरकत और भलाई नहीं होती।
  3. क़ारी कहते हैं : कमाई की बरकत ख़त्म हो जाने का मतलब या तो धन के किसी भाग का नष्ट हो जाना है या फिर उसे ऐसे कामों में खर्च करना है, जिनका न दुनिया में कोई लाभ हो और न आख़िरत में सवाब। ऐसा भी हो सकता है कि धन तो बाक़ी रहे, लेकिन इन्सान उसके लाभ से वंचित हो जाए या फिर धन का वारिस ऐसा व्यक्ति बन जाए, जो उसे पसंद न हो।
  4. नववी कहते हैं : इस हदीस में ख़रीद-बिक्री के समय अत्यधिक क़सम खाने से मना किया गया है। अनावश्यक क़सम खाना मकरूह है। इसमें सामान का प्रचार भी शामिल है। क्योंकि, कभी-कभी ख़रीदने वाला क़सम से धोखा खा जाता है।
  5. बहुत ज़्यादा क़सम खाना ईमान की कमी और एकेश्वरवाद में दोष का संकेत है। क्योंकि बहुत ज़्यादा क़सम खाने से दो चीज़ें होती हैं : 1- इन्सान क़सम खाने को एक मामूली काम समझने लगता है। 2- वह झूठ बोलने लगता है। दरअसल, जो व्यक्ति बहुत ज़्यादा क़सम खाता है, वह झूठ बोलने में ज़रूर शामिल होता है। इसलिए, इंसान को बहुत कम क़सम खानी चाहिए। यही कारण है कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : {وَاحْفَظُوا أَيْمَانَكُمْ} [सूरा अल-माइदा : 89] (अपनी कसमों की हिफ़ाज़त करो।)
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