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عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ:
أَنَّ أَعْرَابِيًّا أَتَى النَّبِيَّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، فَقَالَ: دُلَّنِي عَلَى عَمَلٍ إِذَا عَمِلْتُهُ دَخَلْتُ الجَنَّةَ، قَالَ: «تَعْبُدُ اللَّهَ لاَ تُشْرِكُ بِهِ شَيْئًا، وَتُقِيمُ الصَّلاَةَ المَكْتُوبَةَ، وَتُؤَدِّي الزَّكَاةَ المَفْرُوضَةَ، وَتَصُومُ رَمَضَانَ» قَالَ: وَالَّذِي نَفْسِي بِيَدِهِ لاَ أَزِيدُ عَلَى هَذَا، فَلَمَّا وَلَّى قَالَ النَّبِيُّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: «مَنْ سَرَّهُ أَنْ يَنْظُرَ إِلَى رَجُلٍ مِنْ أَهْلِ الجَنَّةِ، فَلْيَنْظُرْ إِلَى هَذَا».

[صحيح] - [متفق عليه] - [صحيح البخاري: 1397]
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अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अनहु का वर्णन है :
एक देहाती अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहा : मुझे कोई ऐसा कर्म बताएँ कि उसे करूँ, तो जन्नत में दाखिल हो जाऊँ। फ़रमाया : "अल्लाह की इबादत करो, किसी को उसका साझी न बनाओ, फ़र्ज़ नमाज़ कायम करो, फ़र्ज़ ज़कात अदा करो और रमज़ान के रोज़े रखो।" उसने कहा : उसकी क़सम जिसके हाथ में मेरी जान है, मैं इससे ज़्यादा कुछ नहीं करूँगा। जब वह वापस हुआ, तो अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : "जो किसी जन्नती व्यक्ति को देखना चाहे, वह इसे देख ले।"

[सह़ीह़] - [इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।] - [صحيح البخاري - 1397]

व्याख्या

देहात का रहने वाला एक व्यक्ति अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया, ताकि आप उसे जन्नत में दाख़िल करने वाला कोई अमल बता दें। अतः आपने उसे बताया कि जन्नत में प्रवेश और जहन्नम से मुक्ति इस्लाम के स्तंभों के अनुपालन पर निर्भर है, जो इस प्रकार हैं : एक अल्लाह की इबादत करना और किसी को उसका साझी न बनाना। पाँच वक़्त की नमाज़ क़ायम करना, जिन्हें अल्लाह ने रात और दिन में अपने बंदों पर फ़र्ज़ किया है। धन की ज़कात, जो अनिवार्य है, निकाल कर हक़दारों को देना। रमज़ान महीने के रोज़े समय पर पाबंदी से रखना। इतना सुनने के बाद उस व्यक्ति ने कहा : उस हस्ती की क़सम, जिसके हाथ में मेरी जान है, मैं आपसे सुने हुए अनिवार्य कार्यों से न ज़्यादा करूँगा, न कम। अतः जब वह व्यक्ति जाने लगा, तो अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : जिसे कोई जन्नती इन्सान देखना हो, वह इस देहाती व्यक्ति को देख ले।

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हदीस का संदेश

  1. अल्लाह की ओर बुलाने के काम का आरंभ एक अल्लाह की इबादत से होना चाहिए।
  2. नए-नए मुसलमान होने वाले इन्सान को पहले केवल अनिवार्य चीज़ें सिखानी चाहिए।
  3. यह ज़रूरी है कि अल्लाह की ओर बुलाने का कार्य क्रमिक किया जाए।
  4. इन्सान को अपने दीन की बात सीखने का उत्सुक होना चाहिए।
  5. केवल अनिवार्य कार्यों के पालन से भी मुस्लिम व्यक्ति सफल हो जाएगा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इन्सान नफ़ल इबादतों की अदायगी में सुस्ती से काम ले। क्योंकि नफ़ल इबादतों द्वारा फ़र्ज़ इबादतों में रह जाने वाली कमियाँ दूर होती हैं।
  6. कुछ इबादतों का ही केवल उल्लेख उनका महत्व एवं अनिवार्यता बताता है। इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरी इबादतें अनिवार्य नहीं हैं।
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