عَنْ أَبِي رُقَيَّةَ تَمِيمِ بْنِ أَوْسٍ الدَّارِيِّ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ أَنَّ النَّبِيَّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ:
«الدِّينُ النَّصِيحَةُ» قُلْنَا: لِمَنْ؟ قَالَ: «لِلهِ وَلِكِتَابِهِ وَلِرَسُولِهِ وَلِأَئِمَّةِ الْمُسْلِمِينَ وَعَامَّتِهِمْ».
[صحيح] - [رواه مسلم] - [الأربعون النووية: 7]
المزيــد ...
अबू रुक़ैया तमीम बिन औस दारी रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :
"धर्म, शुभचिंतन का नाम है।" हमने कहा : किसका? तो फ़रमाया : "अल्लाह, उसकी किताब, उसके रसूल, मुसलमानों के मार्गदर्शकों और आम लोगों का।"
[सह़ीह़] - [इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।] - [الأربعون النووية - 7]
अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बता रहे हैं कि दीन का आधार निष्ठा और सत्य पर है। हर काम बिल्कुल उसी तरह होना चाहिए, जिस तरह अल्लाह ने वाजिब किया है। कोई कोताही या धोखा नहीं होना चाहिए। चुनांचे अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पूछा गया कि यह निष्टा एवं सच्चाई किसके प्रति होनी चाहिए, तो आपने कहा : 1- उच्च एवं महान अल्लाह के प्रति। इसका अर्थ यह है कि केवल उसी की इबादत की जाए, किसी को उसका साझी न बनाया जाए, उसके पालनहार तथा पूज्य होने तथा उसके नामों एवं गुणों पर विश्वास रखा जाए, उसके आदेश का सम्मान किया जाए और उसपर ईमान लाने का आह्वान किया जाए। 2- अल्लाह की किताब पवित्र क़ुरआन के प्रति : इसका मतलब यह है कि क़ुरआन को अल्लाह की वाणी माना जाए, उसे अल्लाह की अंतिम तथा पिछली तमाम शरीयतों को निरस्त करने वाली किताब माना जाए, उसे उचित सम्मान दिया जाए, उसकी तिलावत की जाए, उसकी सुदृढ़ आयतों पर अमल किया जाए, उसकी अस्पष्ट आयतों को स्वीकार किया जाए, उसकी आयतों का ग़लत अर्थ बताने वालों की ग़लत-बयानियों को सामने लाया जाए, उसके उपदेशों से शिक्षा ग्रहण की जाए, उसमें निहित ज्ञान-विज्ञान का प्रचार-प्रसार किया जाए और उसका आह्वान किया जाए। 3- अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के प्रति : इसका अर्थ यह है कि आपके अंतिम रसूल होने पर विश्वास रखा जाए, आपकी दी हुई शिक्षाओं की पुष्टि की जाए, आपके आदेशों का पालन किया जाए, आपकी मना की हुई चीज़ों से दूर रहा जाए, आपके बताए हुए तरीक़े ही के अनुसार अल्लाह की इबादत की जाए, आपके अधिकार को महत्व दिया जाए, आपको सम्मान दिया जाए, आपके आह्वान का प्रचार-प्रसार किया जाए, आपकी लाई हुई शरीयत को फैलाया जाए और आपपर लगाए जाने वाले आरोपों का खंडन किया जाए। 4- मुस्लिम शासकों के प्रति : इसका अर्थ यह है कि सही काम पर उनका सहयोग किया जाए, शासकीय मामलात में उनसे विवाद न किया जाए और अल्लाह की आज्ञाकारिता में उनकी बात सुनी जाए और उनका पालन किया जाए। 5- आम मुसलमानों के प्रति : इसका अर्थ यह है कि उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाए, उनको अच्छे कामों की ओर बुलाया जाए, उनको कष्ट देने से बचा जाए, उनका भला हो इस बात से प्रेम रखा जाए और नेकी तथा धर्म के कामों में उनका सहयोग किया जाए।