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عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ رضي الله عنه قَالَ:
قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: «إِنَّ اللَّهَ قَالَ: مَنْ عَادَى لِي وَلِيًّا فَقَدْ آذَنْتُهُ بِالحَرْبِ، وَمَا تَقَرَّبَ إِلَيَّ عَبْدِي بِشَيْءٍ أَحَبَّ إِلَيَّ مِمَّا افْتَرَضْتُ عَلَيْهِ، وَمَا يَزَالُ عَبْدِي يَتَقَرَّبُ إِلَيَّ بِالنَّوَافِلِ حَتَّى أُحِبَّهُ، فَإِذَا أَحْبَبْتُهُ: كُنْتُ سَمْعَهُ الَّذِي يَسْمَعُ بِهِ، وَبَصَرَهُ الَّذِي يُبْصِرُ بِهِ، وَيَدَهُ الَّتِي يَبْطِشُ بِهَا، وَرِجْلَهُ الَّتِي يَمْشِي بِهَا، وَإِنْ سَأَلَنِي لَأُعْطِيَنَّهُ، وَلَئِنِ اسْتَعَاذَنِي لَأُعِيذَنَّهُ، وَمَا تَرَدَّدْتُ عَنْ شَيْءٍ أَنَا فَاعِلُهُ تَرَدُّدِي عَنْ نَفْسِ المُؤْمِنِ، يَكْرَهُ المَوْتَ وَأَنَا أَكْرَهُ مَسَاءَتَهُ».

[صحيح] - [رواه البخاري] - [صحيح البخاري: 6502]
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अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अनहु का वर्णन है, वह कहते हैं :
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "अल्लाह कहता है : जो मेरे किसी वली (मित्र) से शत्रुता का रास्ता अपनाएगा, मैं उसके साथ जंग का एलान करता हूँ। मेरा बंदा जिन कामों के द्वारा मेरी निकटता प्राप्त करना चाहता है, उनमें मेरे निकट सबसे प्यारी चीज़ मेरे फ़र्ज़ किए हुए काम हैं। जबकि मेरा बंदा नफ़्लों के माध्यम से मुझसे निकटता प्राप्त करता जाता है, यहाँ तक कि मैं उससे मोहब्बत करने लगता हूँ और जब मैं उससे मोहब्बत करता हूँ, तो उसका कान बन जाता हूँ, जिससे वह सुनता है; उसकी आँख बन जाता हूँ, जिससे वह देखता है; उसका हाथ बन जाता हूँ, जिससे वह पकड़ता है और उसका पाँव बन जाता हूँ, जिससे वह चलता है। अब अगर वह मुझसे माँगता है, तो मैं उसे देता हूँ और अगर मुझसे पनाह माँगता है, तो मैं उसे पनाह देता हूँ। मुझे किसी काम में, जिसे मैं करना चाहता हूँ, उतना संकोच नहीं होता, जितना अपने मोमिन बंदे की जान निकालने में होता हैम, जब कि वह मौत को नापसंद करता हो और मुझे भी उसे तकलीफ देना अच्छा नहीं लगता।"

[सह़ीह़] - [इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है।] - [صحيح البخاري - 6502]

व्याख्या

अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस हदीस-ए-क़ुदसी में बताया है कि सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने कहा है : जिसने मेरे किसी वली (परम मित्र) को कष्ट दिया, नाराज़ किया और उससे द्वेष रखा, मैं उसे भली भांति जानता हूं और उससे मेरी ओर से दुश्मनी का ऐलान है।
वाली से मुराद अल्लाह से डरने वाला और उसके दीन का पालन करने वाला मोमिन है। जिसके दामन में ईमान, अल्लाह के भय और उसके दीन के अनुपालन का जितना भाग होगा, उसे अल्लाह से दोस्ती का उतना भाग नसीब होगा। एक मुसलमान को जिन चीज़ों से अल्लाह की निकटता प्राप्त होती है, अल्लाह के यहाँ उनमें सबसे प्रिय चीज़ें वह हैं, जो अल्लाह ने उसपर फ़र्ज़ की हैं। इसमें अल्लाह के बताए हुए नेक कामों को करना और उसकी हराम की हुई चीज़ों से दूर रहना दोनों शामिल हैं। एक मुसलमान फ़र्ज़ चीज़ों के साथ-साथ नफ़ल चीज़ों द्वारा अल्लाह की निकटता प्राप्त करता जाता है और एक समय आता है,जब उसे अल्लाह की मोहब्बत हासिल हो जाती है। फिर, जब अल्लाह उससे मोहब्बत करने लगता है, तो उसके शरीर के निम्नलिखित चार अंगों को सही दिशा पर लगा देता है :
उसके कान को सही दिशा पर लगा देता है। तो वह वही सुनता है, जो अल्लाह को पसंद हो।
उसकी दृष्टि को सही दिशा पर लगा देता है। अतः वह वही देखता है, जिसे देखना अल्लाह को पसंद हो।
उसके हाथ को सही दिशा पर लगा देता है। वह अपने हाथ से वही काम करता है, जो अल्लाह को पसंद हो।
उसके पाँव की सही दिशा तय कर देता है। वह उसी दिशा में बढ़ता है, जो अल्लाह को पसंद हो और वही काम करता है, जिसमें भलाई हो।
साथ ही अगर अल्लाह के आगे हाथ फैलाता है, तो उसकी झोली भर देता है। उसकी दुआ क़बूल होती है। अगर वह अल्लाह से शरण माँगता है, तो अल्लाह उसे भय से मुक्ति प्रदान करता है।
अंत में उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है : मुझे कोई काम करते हुए उतनी हिचकिचाहट नहीं होती, जितनी हिचकिचाहट मोमिन की रूह क़ब्ज़ करते हुए उसपर दया के कारण होती है। क्योंकि मौत के कष्ट के कारण उसे मौत नापसंद होती है और अल्लाह ऐसी चीज़ों को नापसंद करता हो, जो मोमिन के लिए कष्टकर हों।

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हदीस का संदेश

  1. यह हदीस उन हदीसों में से एक है, जिन्हें अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने पाक रब से रिवायत किया है। इस तरह की हदीसों को हदीस-ए-क़ुदसी या हदीस-ए-इलाही कहा जाता है। इससे मुराद वह हदीस है, जिसके शब्द एवं अर्थ दोनों अल्लाह के हों। अलबत्ता, इसके अंदर क़ुरआन की विशेषताएँ, जैसे उसकी तिलावत का इबादत होना, उसके लिए तहारत हासिल करना, उसका चमत्कार होना और उस जैसी वाणी प्रस्तुत करने की चुनौती देना, आदि नहीं पाई जातीं।
  2. अल्लाह के वलियों को कष्ट देने की मनाही तथा उनसे मोहब्बत रखने और उनकी फ़ज़ीलत को स्वीकार करने की प्रेरणा।
  3. अल्लाह के दुश्मनों से दुश्मनी रखने का आदेश और उनसे दोस्ती रखने की मनाही।
  4. जिसने अल्लाह की शरीयत का अनुसरण किए बग़ैर उसके वली होने का दावा किया, वह अपने दावे में झूठा है।
  5. अल्लाह के वली बनने का सौभाग्य उसके द्वारा अनिवार्य किए गए कामों को करने और उसकी हराम की हुई चीज़ों को छोड़ने के बाद प्राप्त होता है।
  6. अल्लाह की मोहब्बत की प्राप्ति और उसके यहाँ दुआ ग्रहण होने का एक सबब अल्लाह के अनिवार्य किए हुए कार्यों को करने और उसकी हराम की हुई चीज़ों को छोड़ने के बाद नफ़ल इबादतें करना है।
  7. वलियों की श्रष्ठता एवं उच्च स्थान का उल्लेख।
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