عن أبي سعيد الخدري رضي الله عنه قال: قال النبي صلى الله عليه وسلم : «لا تَسُبُّوا أصحابي، فلو أنَّ أحدَكم أَنْفَقَ مثل أُحُد، ذهَبًا ما بَلَغَ مُدَّ أحدهم، ولا نَصِيفَه».
[صحيح] - [متفق عليه]
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अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अंहु- कहते हैं कि नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमायाः "मेरे सहाबा को बुरा-भला मत कहो। तुम में से कोई यदि उहुद पर्वत के बराबर भी सोना ख़र्च कर दे, तो उनके एक या आधे मुद -अनाज मापने का एक पैमाना- के खर्च करने के- बराबर नेकी प्राप्त नहीं कर सकता।"
सह़ीह़ - इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

व्याख्या

अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने किसी भी सहाबी को बुरा कहने से मना किया है, तथा बताया है कि यदि कोई व्यक्ति उहुद पर्वत के बराबर भी सोना खर्च कर दे, तब भी उसके इस दान का पुण्य किसी सहाबी के मुट्ठी भर या आधी मुट्ठी खाने की वस्तु दान करने के पुण्य के बराबर नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि सारे के सारे सहाबा बाद में आने वाले लोगों से श्रेष्ठ हैं। सहाबा के खर्च करने को यह महत्व इसलिए प्राप्त हुआ, क्योंकि उन्होंने ज़रूरत एवं तंगी के समय खर्च किया था। दूसरी बात यह है कि उन्होंने खर्च अल्लाह के रसूल -सल्ल्लाहु अलैहि व सल्लम- की मदद एवं समर्थन में किया था, जिसका सौभाग्य बाद के लोगों को प्राप्त नहीं हो सकता। यही हाल उनके जिहाद एवं अन्य सारी इबादतों का है। इसके साथ ही उनके अंदर स्नेह, प्रेम, विनम्रता, विनीति, त्याग और अल्लाह के मार्ग में बलिदान जैसी चीज़ें भर पूर मात्रा में मौजूद थीं। फिर, सबसे बड़ी बात यह है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के साथ रहने का सौभाग्य, चाहे क्षण भर के लिए ही क्यों न हो, एक ऐसी दौलत है कि उसकी बराबरी कोई अमल नहीं कर सकता। वैसे भी फ़ज़ीलतें क़यास से प्राप्त नहीं की जा सकतीं। यह तो बस अल्लाह का अनुग्रह है, वह जिसे चाहता है, प्रदान करता है।

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