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عَنِ النُّعْمَانِ بْنِ بَشِيرٍ رَضيَ اللهُ عنهُما:
أَنَّ أُمَّهُ بِنْتَ رَوَاحَةَ سَأَلَتْ أَبَاهُ بَعْضَ الْمَوْهِبَةِ مِنْ مَالِهِ لِابْنِهَا، فَالْتَوَى بِهَا سَنَةً ثُمَّ بَدَا لَهُ، فَقَالَتْ: لَا أَرْضَى حَتَّى تُشْهِدَ رَسُولَ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ عَلَى مَا وَهَبْتَ لِابْنِي، فَأَخَذَ أَبِي بِيَدِي وَأَنَا يَوْمَئِذٍ غُلَامٌ، فَأَتَى رَسُولَ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، فَقَالَ: يَا رَسُولَ اللهِ، إِنَّ أُمَّ هَذَا بِنْتَ رَوَاحَةَ أَعْجَبَهَا أَنْ أُشْهِدَكَ عَلَى الَّذِي وَهَبْتُ لِابْنِهَا، فَقَالَ رَسُولُ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: «يَا بَشِيرُ، أَلَكَ وَلَدٌ سِوَى هَذَا؟» قَالَ: نَعَمْ، فَقَالَ: «أَكُلَّهُمْ وَهَبْتَ لَهُ مِثْلَ هَذَا؟» قَالَ: لَا، قَالَ: «فَلَا تُشْهِدْنِي إِذن، فَإِنِّي لَا أَشْهَدُ عَلَى جَوْرٍ»، ولِمُسْلِمٍ: «فَأَشْهِدْ عَلَى هَذَا غَيْرِي».

[صحيح] - [متفق عليه، وله ألفاظ عديدة] - [صحيح مسلم: 1623]
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नौमान बिन बशीर -रज़ियल्लाहु अनहुमा- का वर्णन है, वह कहते हैं :
उनकी माँ रवाहा की बेटी ने उनके पिता से कहा कि वह उनके बेटे को कुछ भेंट करें। उनके पिता एक साल तक टालते रहे। फिर उनका मन हुआ, तो उनकी (नौमान की) माँ ने कहा : मैं उस समय तक संतुष्ट नहीं हो सकती, जब तक आप अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को मेरे बेटे को दिए गए इस भेंट पर गवाह न बना लें। चुनांचे मेरे पिता ने मेरा हाथ पकड़ा कि मैं उस समय बच्चा था, अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास पहुँचे और कहने लगे : ऐ अल्लाह के रसूल! इस बच्चे की माँ रवाहा की बेटी की इच्छा है कि मैंने अपने बेटे को जो भेंट दिया है, उसपर आपको गवाह बना लूँ। यह सुन अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने पूछा : "ऐ बशीर! क्या तुम्हारे और भी बच्चे हैं?" उन्होंने उत्तर दिया : जी हाँ, हैं। आपने पूछा : "क्या तुमने सब को इसी तरह का भेंट दिया है?" उन्होंने उत्तर दिया : जी नहीं। फ़रमाया : "तब तुम मुझे गवाह मत बनाओ। क्योंकि मैं किसी अन्याय का गवाह नहीं बनता।" सहीह मुस्लिम की एक रिवायत में है : "इसका गवाह मुझे छोड़कर किसी और को बना लो।"

[सह़ीह़] - [متفق عليه وله ألفاظ عديدة] - [صحيح مسلم - 1623]

व्याख्या

नौमान बिन बशरीर -रज़ियल्लाहु अनहुमा- कहते हैं कि उनकी माँ अमरा बिंत रवाहा ने उनके पिता बशीर से आग्रह किया कि वह अपने धन से अमरा के बेटे (नौमान) को कोई भेंट दे दें। बशीर उनके इस आग्रह को एक साल तक टालते रहे और उसके बाद उनको लगा कि इस आग्रह को स्वीकार कर लेना चाहिए और नौमान को कोई उपहार देना चाहिए। लेकिन अब अमरा ने कह दिया : मैं उस समय तक संतुष्ट नहीं हो सकती, जब तक आप मेरे बेटे को दिए गए इस उपहार का गवाह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को न बना लें। चूँकि मैं उस समय छोटा बच्चा था, इसलिए मेरे पिता ने मेरा हाथ पकड़ा, अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास पहुँचे और कहने लगे : ऐ अल्लाह के रसूल! इस बच्चे की माँ रवाहा की बेटी की इच्छा है कि मैं अपने बेटे को दिए गए उपहार का गवाह आपको बनाऊँ। उनकी बात सुन अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने पूछा : ऐ बशीर! क्या तुम्हारे और भी बच्चे हैं? जवाब दिया : जी हाँ (हैं)। पूछा : क्या तुमने उन सब को भी इसी प्रकार का उपहार दिया है? उत्तर दिया : जी नहीं। फ़रमाया : तब तुम मुझे इसका गवाह मत बनाओ। क्योंकि मैं किसी अन्याय एवं अत्याचार का गवाह नहीं बनता। सहीह मुस्लिम की एक रिवायत में है कि आपने उन्हें डाँटते हुए फ़रमाया : तुम इस अन्याय का गवाह किसी और को बना लो।

हदीस का संदेश

  1. उपहार एवं भेंट में बेटों एवं बेटियों के बीच न्याय करना ज़रूरी है। जहाँ तक खर्च की बात है, तो खर्च हरेक पर उसकी ज़रूरत के अनुसार किया जाएगा।
  2. एक बच्चे को दूसरे बच्चे पर प्राथमिकता देना अन्याय एवं अत्याचार है। इसका न गवाह बनना जायज़ है और न गवाही देना।
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