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عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ رضي الله عنه:
أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ دَخَلَ المَسْجِدَ فَدَخَلَ رَجُلٌ، فَصَلَّى، فَسَلَّمَ عَلَى النَّبِيِّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، فَرَدَّ وَقَالَ: «ارْجِعْ فَصَلِّ، فَإِنَّكَ لَمْ تُصَلِّ»، فَرَجَعَ يُصَلِّي كَمَا صَلَّى، ثُمَّ جَاءَ، فَسَلَّمَ عَلَى النَّبِيِّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، فَقَالَ: «ارْجِعْ فَصَلِّ، فَإِنَّكَ لَمْ تُصَلِّ» ثَلاَثًا، فَقَالَ: وَالَّذِي بَعَثَكَ بِالحَقِّ مَا أُحْسِنُ غَيْرَهُ، فَعَلِّمْنِي، فَقَالَ: «إِذَا قُمْتَ إِلَى الصَّلاَةِ فَكَبِّرْ، ثُمَّ اقْرَأْ مَا تَيَسَّرَ مَعَكَ مِنَ القُرْآنِ، ثُمَّ ارْكَعْ حَتَّى تَطْمَئِنَّ رَاكِعًا، ثُمَّ ارْفَعْ حَتَّى تَعْدِلَ قَائِمًا، ثُمَّ اسْجُدْ حَتَّى تَطْمَئِنَّ سَاجِدًا، ثُمَّ ارْفَعْ حَتَّى تَطْمَئِنَّ جَالِسًا، وَافْعَلْ ذَلِكَ فِي صَلاَتِكَ كُلِّهَا».

[صحيح] - [متفق عليه] - [صحيح البخاري: 757]
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अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- कहते हैं कि :
अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- मस्जिद में दाखिल हुए। इसी बीच एक आदमी ने मस्जिद में प्रवेश किया, नमाज़ पढ़ी और नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास आकर सलाम किया, तो आपने उसके सलाम का जवाब दिया और फ़रमाया : "वापस जाकर फिर से नमाज़ पढ़ो, क्योंकि तुमने नमाज़ पढ़ी ही नहीं।" चुनांचे वह वापस गया, पहले ही की तरह दोबारा नमाज़ पढ़ी और नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास आकर सलाम किया। दोबारा आपने कहा : "वापस जाकर फिर से नमाज़ पढ़ो, क्योंकि तुमने नमाज़ पढ़ी ही नहीं।" (ऐसा तीन बार हुआ।) अंततः उसने कहा : उस अल्लाह की क़सम जिसने आपको सत्य के साथ भेजा है, मुझे इससे अच्छी नमाज़ नहीं आती! अतः मुझे सिखा दीजिए। इसपर आपने कहा : "जब तुम नमाज़ के लिए खड़े हो, तो 'अल्लाहु अकबर' कहो। फिर जितना हो सके, कुरआन पढ़ो। फिर इतमीनान के साथ रुकू करो। फिर उठो और संतुलित होकर खड़े हो जाओ। फिर इतमीनान के साथ सजदा करो। फिर उठो और इतमीनान से बैठो। और ऐसा अपनी पूरी नमाज़ में करो।"

[सह़ीह़] - [इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।] - [صحيح البخاري - 757]

व्याख्या

अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- मस्जिद में दाख़िल हुए। आपके बाद एक व्यक्ति दाख़िल हुआ और जल्दी-जल्दी दो रकात नमाज़ पढ़ ली। न कियाम इत्मीनान से किया, न रुकू और न सजदा। अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- उसे नमाज़ पढ़ते हुए देख रहे थे। आप उस समय मस्जिद के एक किनारे में बैठे हुए थे। वह व्यक्ति आपके पास आया और सलाम किया, तो आपने सलाम का जवाब देने के बाद फ़रमाया : वापस जाओ और दोबारा नमाज़ पढ़ो, क्योंकि तुमने नमाज़ पढ़ी ही नहीं है। वह वापस गया, पहले ही की तरह दोबारा जल्दी-जल्दी नमाज़ पढ़ी, वापस आया और आपको सलाम किया, तो आपने कहा : तुम वापस जाओ और दोबारा नमाज़ पढ़ो। क्योंकि तुमने नमाज़ पढ़ी ही नहीं है। आपने ऐसा तीन बार किया। तब उस व्यक्ति ने कहा : उस अल्लाह की क़सम जिसने आपको सत्य के साथ भेजा है, मुझे इससे बेहतर नमाज़ पढ़ना नहीं आता। अतः आप मुझे नमाज़ सिखा दें। तब आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उससे कहा : जब नमाज़ के लिए खड़े हो जाओ, तो तकबीर-ए-तहरीमा कहो, फिर फ़ातिहा और जो अल्लाह चाहे पढ़ो, फिर इस तरह इत्मीनान से रुकू करो कि दोनों हथेलियों को दोनों घुटनों पर रख लो, अपनी पीठ फैला लो और इत्मीनान से रुकू करो, फिर उठ जाओ और अपनी पीठ इस तरह सीधी कर लो कि सारी हड्डियाँ अपने-अपने जोड़ों तक पहुँच जाएँ और सीधे खड़े हो जाओ, फिर इत्मीनान से सजदा करो और पेशानी तथा नाक एवं दोनों हाथों, घुटनों और पैरों की उंगलियों के किनारों को ज़मीन पर रखो, फिर उठो और इत्मीनान से दोनों सजदों के बीच बैठो और उसके बाद ऐसा ही अपनी नमाज़ की हर रकात में करो।

हदीस का संदेश

  1. नमाज़ के ये स्तंभ ग़लती से या अनजाने में छूट जाने से क्षमा नहीं होते। प्रमाण यह है कि आपने अपने सामने नमाज़ पढ़ रहे इस व्यक्ति को इसे दोहराने का आदेश दिया। सिखा देने मात्र पर बस नहीं किया।
  2. इत्मीनान से नमाज़ पढ़ना नमाज़ का एक स्तंभ है।
  3. नववी कहते हैं : इस हदीस से मालूम होता है कि जिसने नमाज़ के किसी अनिवार्य कार्य को सही से अदा नहीं किया, उसकी नमाज़ सही नहीं होगी।
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