عن علي بن أبي طالب رضي الله عنه قال: «أَمَرَنِي رَسُول اللَّهِ -صلَّى الله عليه وسلَّم- أَن أَقُومَ عَلَى بُدْنِهِ، وَأَن أَتَصَدَّقَ بِلَحمِهَا وَجُلُودِهَا وَأَجِلَّتِهَا، وَأَن لا أُعْطِيَ الجَزَّارَ مِنهَا شَيْئًا».
[صحيح] - [متفق عليه]
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अली बिन अबू तालिब (रज़ियल्लाहु अंहु) का वर्णन है, कहते हैंः मुझे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने आदेश दिया कि मैं आपकी कुरबानी के जानवरों की देखरेख करूँ तथा उनके मांस, खालों (चमड़ों) और झूलों को सदक़ा कर दूँ और कसाई को उनमें से कुछ भी न दूँ।
सह़ीह़ - इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

व्याख्या

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) 'हज्जतुल वदा' के अवसर पर मक्का आए। साथ में कुरबानी के जानवर थे। अली बिन अबू तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु) यमन से आए। उनके साथ भी कुरबानी के जानवर थे। चूँकि कुरबानी फ़कीरों और मिस्कीनों के लिए सदका है, अतः कुरबानी करने वाले का यह हक़ नहीं बनता कि उसका कुछ भाग मुआवज़ा के तौर पर किसी को दे। यही कारण है कि आपने कसाई को उसके कार्य के बदले में उसमें से कुछ देने से मना किया है। हाँ, उसे मांस, खाल और झूल आदि के सिवाय और कोई चीज़ देना चाहे, तो दे सकता है।

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