वर्गीकरण:
عن أسامة بن زيد رضي الله عنهما أن النبي صلى الله عليه وسلم قال:

«لا يرثُ المسلمُ الكافرَ، ولا يَرِثُ الكافرُ المسلمَ».
[صحيح] - [متفق عليه]
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उसामा बिन ज़ैद -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से रिवायत है कि नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया : "c2">“मुस्लिम काफिर का वारिस नहीं हो सकता तथा काफिर मुस्लिम का वारिस नहीं हो सकता।”

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مكرر مع (6092)، قال د: يُحذف (64716)؛ لأن (6092) رُبط بالشامي.
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الملاحظة
مكرر كما ذكر الأخ أو من رواية أخرى.
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सह़ीह़ - इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

व्याख्या

इस हदीस में अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने बताया है कि मुसलमान एवं काफ़िर के बीच उत्तराधिकार का सिलसिला नहीं चलता। इसका कारण यह है कि इस्लाम का संबंध धरती का सबसे शक्तिशाली संबंध है। अतः जब नसबी रिश्तेदारों के बीच यह पवित्र संबंध न रहे, तो फिर सारे रिश्ते छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। ऐसे में खानदानी रिश्ते की शक्ति भी व्यर्थ हो जाती है। अतः एक-दूसरे के वारिस बनने की कोई गुंजाइश नहीं रहती, जो कि आपसी प्रेम एवं परस्पर सहयोग पर आधारित है।

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शब्दार्थ

الكافر:
هو فاعل الكفر، والكفر شرعًا: قول أو اعتقاد أو فعل يعتبر به الإنسان خارجًا من الإِسلام ابتداءً أو بعد أن كان مسلمًا.
يرث:
فعل مصدره الميراث، وهو قدر معلوم يعطى لأ شخاص معينين من مال الميت.
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