عَنْ عَبْدِ اللهِ بْنِ عُمَرَ رضي الله عنهما قَالَ: كَانَ مِنْ دُعَاءِ رَسُولِ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ:

«اللهُمَّ إِنِّي أَعُوذُ بِكَ مِنْ زَوَالِ نِعْمَتِكَ، وَتَحَوُّلِ عَافِيَتِكَ، وَفُجَاءَةِ نِقْمَتِكَ، وَجَمِيعِ سَخَطِكَ».
[صحيح] - [رواه مسلم]
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अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) यह दुआ किया करते थेः "c2">“ऐ अल्लाह, मैं तेरी पनाह चाहता हूँ तेरी दी हुई नेमत (अनुग्रह) के समाप्त हो जाने से, और तेरी दी हुई आफियत के पलट जाने से, और तेरे आकस्मिक अज़ाब से तथा तेरे ग़ज़ब (क्रोध) वाले समस्त कार्यों से।”
सह़ीह़ - इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

व्याख्या

यह एक महत्वपूर्ण दुआ है, जिसमें अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने कहा है : "ऐ अल्लाह, मैं तेरी पनाह चाहता हूँ तेरी दी हुई नेमत (अनुग्रह) के समाप्त हो जाने से" यानी तेरी शरण में आता हूँ नेमत के इस तरह चले जाने से कि उसका कोई बदल भी न मिले, "और तेरी दी हुई आफ़ियत के पलट जाने से" यानी आफ़ियत के स्थान पर बीमारी, निर्धनता आदि के आ जाने से। इस तरह आपने अल्लाह से लोक एवं परलोक दोनों स्थानों की सभी अप्रिय वस्तुओं से सुरक्षा माँगी है। "और तेरे आकस्मिक अज़ाब से तथा तेरे ग़ज़ब (क्रोध) वाले समस्त कार्यों से" यानी इसी तरह मैं तेरी शरण में आता हूँ प्रतिकार के रूप में दंड के शिकार होने और अचानक पकड़ लिए जाने से। आपने दुआ का अंत अल्लाह को क्रोधित करने वाले सारे कार्यों से उसकी शरण माँगते हुए की है।

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