عَنْ عُبَادَةَ بْنِ الصَّامِتِ رضي الله عنه أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ:

«لَا صَلَاةَ لِمَنْ لَمْ يَقْرَأْ بِفَاتِحَةِ الكِتَابِ».
[صحيح] - [متفق عليه]
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उबादा बिन सामित (रज़ियल्लाहु अंहु) से वर्णित है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः "जिसने सूरा-ए-फ़ातिहा नहीं पढ़ी, उसकी नमाज़ ही नहीं।"
सह़ीह़ - इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

व्याख्या

सूरा फ़ातिहा क़ुरआन का सार और उसकी आत्मा है। क्योंकि उसके अंदर अल्लाह की कई तरह की प्रशंसाएँ हैं, सद्गुणों का वर्णन है, उसके राज्य एवं शक्ति का बखान है, आख़िरत और प्रतिफल का ज़िक्र है, इबादत तथा संतुलित मार्ग का उल्लेख है और यही एकेश्वरवाद एवं बंदों के कंधों पर डाली गई ज़िम्मेवारियों के अलग-अलग रूप हैं। यही कारण है कि नमाज़ की हर रकात में उसे पढ़ना अनिवार्य किया गया है, नमाज़ के सही होने या न होने को उसके पढ़ने के साथ जोड़ा गया है और उसे पढ़े बिना नमाज़ को शरई एतबार से अस्तित्वहीन बताया गया है। सूरा फ़ातिहा के बिना नमाज़ का शरई अस्तित्व ही नहीं होता, इसकी पुष्टि अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- की इस मरफ़ू रिवायत से भी होती है, जिसे इब्ने ख़ुज़ैमा ने रिवायत किया है : "ऐसी कोई नमाज़ सही ही नहीं होती, जिसमें उम्म-उल-क़ुरआन (सूरा फ़ातिहा) न पढ़ी जाए।" अल्बत्ता, इस आदेश से उस मुक़तदी को अलग रखा गया है, जो इमाम को रुकू की हालत में पाए। क्योंकि वह तकबीर-ए-तहरीमा के बाद रुकू में चला जाएगा तथा एक अन्य हदीस की बिना पर उसे इस रकात में सूरा फ़ातिहा न पढ़ने की छूट होगी। वैसे भी उसे क़िरात का स्थान यानी क़याम मिला ही नहीं है।

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