عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ:

«إِذَا انْتَعَلَ أَحَدُكُمْ فَلْيَبْدَأْ بِاليَمِينِ، وَإِذَا نَزَعَ فَلْيَبْدَأْ بِالشِّمَالِ، لِيَكُنِ اليُمْنَى أَوَّلَهُمَا تُنْعَلُ وَآخِرَهُمَا تُنْزَعُ».
[صحيح] - [متفق عليه]
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अली बिन अबू तालिब (रज़ियल्लाहु अंहु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से रिवायत करते हुए कहते हैंः "जब तुममें से कोई जूता पहने, तो दाएँ पाँव से शुरू करे और जब जूता उतारे, तो बाएँ पाँव से शुरू करे। दाएँ पाँव में पहले जूता पहना जाए और बाद में उतारा जाए।"
सह़ीह़ - इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

व्याख्या

जूता पहनने का मुसतहब तरीक़ा यह है कि पहले दाएँ पाँव में पहना जाए और जूता उतारने का मुसतहब तरीक़ा यह है कि पहले बाएँ पाँव का जूता उतारा जाए। क्योंकि इसमें दाएँ पाँव के सम्मान का पक्ष निहित है।

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