عَنْ أَنَسٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ عَنِ النَّبِيِّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قالَ:

«لاَ يُؤْمِنُ أَحَدُكُمْ، حَتَّى يُحِبَّ لِأَخِيهِ مَا يُحِبُّ لِنَفْسِهِ».
[صحيح] - [متفق عليه]
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अनस बिन मालिक- रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है कि अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया: तुममें से कोई उस समय तक मोमिन नहीं हो सकता, जब तक अपने भाई के लिए वही पसंद न करे, जो अपने लिए पसंद करता है।
सह़ीह़ - इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

व्याख्या

एक संपूर्ण ईमान वाले आदमी का कर्तव्य है कि अपने भाई के लिए उसी चीज़ को प्रिय जाने जिसे अपने लिए प्रिय जानता है। इस प्रेम का मतलब यह है कि इनसान अपने भाई को उन तमाम चीज़ों में अपने बराबर जाने, जिनमें लाभ है। चाहे उन चीज़ों का संबंध धर्म से हो या संसार से। जैसे शुभचिंतन, भलाई का मार्गदर्शन, अच्छी बात का आदेश देना और बुरी बात से रोकना आदि, जिन्हें इनसान अपने लिए प्रिय जानता है, अपने भाई का मार्गदर्शन उनकी ओर करे। इसी तरह जिन बातों को अपने लिए अप्रिय जानता है और जिनमें कमी अथवा हानि है, उनसे अपने भाई को दूर करे और बचाए।

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