عَنْ جَابِرٍ رضي الله عنه قَالَ: سَمِعْتُ النَّبِيَّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَبْلَ وَفَاتِهِ بِثَلَاثٍ يَقُولُ:

«لَا يَمُوتَنَّ أَحَدُكُمْ إِلَّا وَهُوَ يُحْسِنُ بِاللهِ الظَّنَّ».
[صحيح] - [رواه مسلم]
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जाबिर बिन अब्दुल्लाह- रज़ियल्लाहु अन्हु- का वर्णन है कि उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अपनी मृत्यु से तीन दिन पहले कहते हुए सुनाः तुममें से किसी की मृत्यु केवल इस अवस्था में आए कि वह (सर्वशक्तिमान एवं प्रभावशाली) अल्लाह के बारे में अच्छा गुमान रखता हो।
सह़ीह़ - इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

व्याख्या

एक मुसलमान का जीवन अनिवार्य रूप से भय एवं आशा के बीच व्यतीत होना चाहिए। भय अल्लाह के क्रोध एवं उसकी नाराज़गी का और आशा उसकी क्षमा एवं उसकी कृपा की। लेकिन मृत्यु के समय आशा के पक्ष को ग़ालिब रखना चाहिए, अल्लाह से अच्छा गुमान रखना चाहिए तथा उसकी दया एवं क्षमा की उम्मीद रखनी चाहिए, ताकि उस समय अल्लाह की दया से मायूसी का वातावरण न पैदा हो।

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