عَنِ النَّبِيِّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَنَّهُ نَهَى عَنِ النَّذْرِ، وَقَالَ: «إِنَّهُ لَا يَأْتِي بِخَيْرٍ، وَإِنَّمَا يُسْتَخْرَجُ بِهِ مِنَ الْبَخِيلِ».
[صحيح] - [متفق عليه]
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अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) से वर्णित है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मन्नत मानने से मना किया है और कहा हैः "मन्नत कोई भलाई नहीं लाती। इसके द्वारा केवल कंजूस का धन निकाला जाता है।"
सह़ीह़ - इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।
अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने मन्नत मानने से मना किया है और इसका कारण यह बताया है कि इससे कोई फ़ायदा नहीं होता। क्योंकि इनसान मन्नत के ज़रिए जो चीज़ अनिवार्य नहीं है, उसको अपने ऊपर अनिवार्य कर लेता है, जिसके अनुपालन में कोताही की स्थिति में वह गुनाह का अधिकारी बन सकता है। इसमें एक बुराई और भी है। वांछित वस्तु की प्राप्ति अथवा नापसंदीदा वस्तु से बचाव की शर्त पर अपने ऊपर कोई इबादत अनिवार्य करना एक तरह से अल्लाह के साथ विनिमय पर आधारित सौदा करना है। साथ ही इससे यह ख़याल भी आ सकता है कि अल्लाह ने उसकी मुराद इसलिए पूरी की, ताकि बंदा उसकी इबादत करे। यह तथा इस तरह के अन्य कारणों से अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने इससे मना किया है, ताकि बंदा उक्त बातों से सुरक्षित रहे। बिना किसी विनिमय और शर्त के अल्लाह की इबादत करे तथा उसके प्रति आशांतवित रहे और उससे दुआएँ करते रहे। इस तरह, मन्नत का कोई फ़ायदा नहीं है। यदि है, तो बस इतना कि इसके द्वारा कंजूस व्यक्ति का धन निकाला जाता है, जो केवल वही कार्य करता हो जिसका करना अनिवार्य हो और जिससे पीछा छुड़ाने की कोई गुंजाइश न हो। फिर, उसे भी जब करे, तो भारी मन से, बोझ महसूस करते हुए और सच्ची नीयत तथा अल्लाह के पास मिलने वाले प्रतिफल की चाहत से खाली होकर करे, जो किसी कार्य का मूल आधार हुआ करता है।