عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ:

كَانَ النَّبِيُّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَعْتَكِفُ فِي كُلِّ رَمَضَانٍ عَشَرَةَ أَيَّامٍ، فَلَمَّا كَانَ العَامُ الَّذِي قُبِضَ فِيهِ اعْتَكَفَ عِشْرِينَ يَوْمًا.
[صحيح] - [رواه البخاري]
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अबू हुरैरा- रज़ियल्लाहु अन्हु- कहते हैं कि नबी- सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- प्रत्येक रमज़ान में दस दिन एतेकाफ़ करते थे। परन्तु जब मृत्यु का वर्ष आया, तो बीस दिन एतेकाफ़ किया।
सह़ीह़ - इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है।

व्याख्या

अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- हर रमज़ान महीने के दस दिन दुनिया के झमेलों से अलग होकर अल्लाह की इबादत करने के उद्देश्य से मस्जिद में गुज़ारते थे, जिसे एतिकाफ़ कहते हैं। आप पहले सम्मानित रात्रि (लैलतुल क़द्र) को पाने की आशा में बीच के दस दिनों में एतिकाफ़ करते थे। लेकिन जब यह मालूम हो गया कि लैलतुल क़द्र अंतिम दस दिनों में होती है, तो उन्हीं में एतिकाफ़ करने लगे। फिर, जिस वर्ष आपकी मृत्यु हुई, उस वर्ष आपने बीस दिन एतिकाफ़ किया, ताकि अल्लाह की अधिक इबादत की जा सके और उसकी अधिक निकटता प्राप्त की जा सके।

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